दरिया का था या फिर ये क़रिश्मा ख़ुदा का था

दरिया का था या फिर ये क़रिश्मा ख़ुदा का था पर्वत भी बह गये वो बहाव बला का था   तलवों में किरचें चुभती रहीं जिसकी बार-बार टूटा हुआ वो आईना मेरी अना का था   कुछ बुझ गये हवाओं से डूबे भँवर में कुछ जलता रहा दीया जो मेरी आस्था का था   आँगन … Continue reading दरिया का था या फिर ये क़रिश्मा ख़ुदा का था